
- पूरे विश्व को ताजगी से भरने वाले और रोज़ सुबह एक नई ऊर्जा प्रदान करने वाले उस्ताद ज़ाकिर हुसैन हुए अमर
- मशहूर तबला वादक डॉ. ज़ाकिर हुसैन का 73 वर्ष की आयु में हृदय रोग से निधन, अमेरिका के अस्पताल में ली आख़िरी साँस।
- तबला वादन की कला को वैश्विक पहचान दिलाने वाले महान संगीतकार।
- “हुज़ूर, वाह ताज! बोलिए” विज्ञापन से एक-एक घर में प्रसिद्धि।
- ग्रैमी अवार्ड समेत पद्म श्री और पद्म भूषण जैसे प्रतिष्ठित सम्मान भी किया अपने नाम।
- भारतीय शास्त्रीय संगीत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर नई ऊंचाइयों तक पहुंचाने में उस्ताद जाकिर हुसैन का अहम योगदान।

नई दिल्ली/लखनऊ, 16 दिसम्बर 2024: भले ही हम सबके लिए उस्ताद ज़ाकिर हुसैन की साँसें ठहर गई हों लेकिन उनके तबले की थाप की गूंज कभी नहीं ठहरेगी। कहते हैं कलाकार न कभी बूढ़ा होता है और न ही मरता है बल्कि वो अपनी कलाकारी से रोज़ थोड़ा और युवा हो जाता है। उन चिरयुवा लोगों में से एक हैं ज़ाकिर हुसैन, जिन्हें मैं शिवसागर सिंह चौहान (Editor- truenewsup.com) हाँथ जोड़कर नमन करता हूँ।
भारतीय शास्त्रीय संगीत को विश्व मंच पर गौरवान्वित करने वाले महान तबला वादक उस्ताद ज़ाकिर हुसैन ने 73 वर्ष की उम्र में सोमवार, 16 दिसंबर 2024 को सुबह अमेरिका के सैन फ्रांसिस्को स्थित एक अस्पताल में आखिरी सांस ली। दिल की बीमारी और फेफड़े की जटिलताओं के कारण वे पिछले दो सप्ताह से अस्पताल में भर्ती थे। उनकी मृत्यु के साथ भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय संगीत के एक युग का अंत हो गया। उस्ताद का जाना सिर्फ भारतीय शास्त्रीय संगीत के लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के संगीत प्रेमियों के लिए अपूरणीय क्षति है। उनके तबले की थाप और संगीत की गूंज आने वाली पीढ़ियों के लिए प्रेरणा और गौरव की कहानियाँ कहती रहेगी।
उस्ताद ज़ाकिर हुसैन का जन्म 9 मार्च 1951 को मुंबई में हुआ। वे तबला वादन के महान उस्ताद अल्लारक्खा खान के पुत्र थे। संगीत, उनके खून में था, और महज 5 साल की उम्र में उन्होंने तबला वादन की शिक्षा लेनी शुरू कर दी थी। उनके पिता ने उन्हें तबले की बारीकियाँ सिखाईं, और बचपन से ही वे संगीत समारोहों में हिस्सा लेने लगे। महज 11 साल की उम्र में उन्होंने अपना पहला कॉन्सर्ट अमेरिका में किया। इस उम्र में भी उनके प्रदर्शन में अद्भुत परिपक्वता थी, जो बताता है कि वे एक असाधारण प्रतिभा के धनी थे।
यूपी के उन्नाव निवासी शागिर्द शेख़ इब्राहिम की जुबानी

मूलतः उत्तरप्रदेश के उन्नाव निवासी और ज़ाकिर हुसैन साहब के गुरुभाई व मुख्य शागिर्द शेख़ इब्राहिम ने उस्ताद के निधन पर गहरा दुःख व्यक्त करते हुए बताया कि इनके परिवार से तो मेरे संबंध लगभग तीन दशक से हैं लेकिन उनसे (ज़ाकिर हुसैन जी से) मेरा व्यक्तिगत संबंध सन् 2000 से है। उन्होंने बताया कि इनके अंडर में ही दो साल (2000-2002 तक) भारत सरकार की कल्चरल बीट में नेशनल स्कॉलरशिप भी की और कोर्स भी कम्प्लीट किया, जिसमें उस्ताद का काफ़ी सहयोग रहा।
सन् 2000 में ही बड़े उस्ताद यानी इनके पिता जी दिग्गज तबला वादक अल्ला रक्खा ख़ान की डेथ के बाद इनसे हमारी तालीम लगातार चलती रही और मैं अपनी रोज़ी-रोटी में भी लग गया लेकिन उसके एक लंबे समय बाद, 2018 में उस्ताद जी ने मुझे अपने पास बुला लिया और लास्ट सितम्बर तक मैं उन्हीं के साथ था, उसके बाद वो USA चले गए क्योंकि उनका परिवार वहीं रहता है लेकिन वो साल में तीन महीने (दिसम्बर से हाफ़ मार्च तक) के लिए इंडिया (मुंबई आवास) ज़रूर आते थे और इस दरम्यान वो इंडिया समेत एशिया के सभी कार्यक्रमों में शरीक होते थे।
शेख़ इब्राहिम के मुताबिक़ ज़ाकिर हुसैन साहब ने उन्हें एक सीख दी जिस कारण उनका भी जीवन बदल गया, उन्होंने बताया कि वो मुझसे हमेशा कहते थे कि “जहाँ भी और जिसके भी पास भी काम करने जाओ, उसके बारे में जान लो और उस काम का होमवर्क करके ही उसके पास जाओ, इससे सामने वाले व्यक्ति से बात करने से लेकर आपके काम करने में भी आपको काफ़ी सरलता होगी” यह बताते हुए ही उन्होंने काफ़ी दुःखी लहज़े में भरे हुए गले से बताया कि आज वो जो भी हैं सब उन्हीं की (उस्ताद ज़ाकिर हुसैन की) देन है।
वैश्विक मंच पर भारतीय संगीत का प्रतिनिधित्व
उस्ताद ज़ाकिर हुसैन भारतीय शास्त्रीय संगीत को दुनिया भर में ले जाने वाले सबसे बड़े राजदूतों में से एक थे।
• उन्होंने मशहूर बैंड ‘शक्ति’ के साथ काम किया, जिसमें गिटार वादक जॉन मैकलॉघलिन और वायलिन वादक एल. शुभ्रमण्यम शामिल थे। यह बैंड भारतीय शास्त्रीय और पश्चिमी जैज़ संगीत का अद्भुत संगम था।
• 1992 में उन्होंने मिकी हार्ट के साथ ‘प्लैनेट ड्रम’ प्रोजेक्ट के लिए काम किया और पहला ग्रैमी अवॉर्ड जीता।
• 2009 में उन्होंने ग्लोबल ड्रम प्रोजेक्ट के लिए दूसरा ग्रैमी अवॉर्ड जीता।
• 2024 में ज़ाकिर हुसैन ने इतिहास रचते हुए एक साथ तीन अलग-अलग एलबमों के लिए तीन ग्रैमी अवॉर्ड्स जीते। ज़ाकिर हुसैन को उनके अतुलनीय योगदान के लिए कई राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय सम्मान प्राप्त हुए:
• पद्म श्री (1988)
• पद्म भूषण (2002)
• ग्रैमी अवॉर्ड (1992, 2009, और 2024)
इसके अलावा, वे संगीत अकादमी के सदस्य और कई अंतर्राष्ट्रीय परियोजनाओं के भागीदार रहे। उनकी उपलब्धियाँ बताती हैं कि वे न केवल एक कलाकार थे, बल्कि भारतीय संगीत और संस्कृति के जीवंत प्रतीक थे। यह उपलब्धियाँ बताती हैं कि उनका संगीत केवल भारतीय सीमाओं तक सीमित नहीं था, बल्कि यह वैश्विक मंच पर भी दिलों को छूता था।
जिस तरह से इन्होंने संगीत की दुनिया में तबले को एक आम भाषा में पूरे विश्व में पहुँचाया है वो बहुत ही सराहनीय है क्योंकि यह साधारण काम नहीं है उस्ताद ज़ाकिर हुसैन साहब ने न सिर्फ़ संगीत के रूप में तबले को पूरे विश्व में फैलाया बल्कि हिंदुस्तान की संस्कृति को भी फैलाया, जो कहीं न कहीं समूचे विश्व में हिंदुस्तान का गौरव बढ़ाने का काम करता है।
ताजमहल चाय का ऐड: “हुज़ूर, वाह ताज बोलिए!”
उस्ताद ज़ाकिर हुसैन की लोकप्रियता न केवल उनके संगीत तक सीमित रही, बल्कि 1980 के दशक में उनका ताजमहल चायपत्ती का विज्ञापन भारतीय घरों में एक नई पहचान लेकर आया।
उनकी तबले की थाप के साथ उनकी जादुई आवाज़ में कहा गया यह संवाद – “हुज़ूर, वाह ताज बोलिए!” – हर भारतीय के दिल में बस गया।
• इस विज्ञापन ने न केवल ताजमहल चाय को प्रसिद्ध किया, बल्कि ज़ाकिर हुसैन को भी आम लोगों के बीच ख्याति दिलाई।
• यह ऐड भारतीय ब्रांडिंग और कला का मील का पत्थर बन गया, जिसने चाय और संगीत को एक अटूट कड़ी में जोड़ दिया।
फिल्म और सांस्कृतिक योगदान
उस्ताद ज़ाकिर हुसैन ने न केवल संगीत, बल्कि भारतीय और अंतर्राष्ट्रीय फिल्मों में भी अपनी छाप छोड़ी।
• 1983 में फिल्म ‘हीट एंड डस्ट’ से उन्होंने अभिनय के क्षेत्र में कदम रखा।
• इसके बाद ‘द परफेक्ट मर्डर’ (1988), ‘मिस बैटीज चिल्डर्स’ (1992) और ‘साज’ (1998) जैसी फिल्मों में भी उन्होंने काम किया।
• सत्यजीत रे और श्याम बेनेगल जैसे प्रतिष्ठित निर्देशकों की फिल्मों में उनकी संगीत रचनाओं ने चार चाँद लगा दिए।
संगीत का दर्शन: कला और आत्मा का संगम
उस्ताद ज़ाकिर हुसैन के लिए संगीत केवल एक कला नहीं, बल्कि आत्मा को छूने का साधन था। उनका मानना था कि संगीत सीमाओं और भाषाओं से परे होता है। उनका हर प्रदर्शन इस विचारधारा को जीवंत करता था। उनके संगीत में भारतीय परंपराओं और आधुनिकता का अनोखा मिश्रण था। वे भारतीय शास्त्रीय संगीत को उसकी जड़ों से जोड़े रखते हुए इसे नए युग की धारा के साथ आगे बढ़ाने में सफल रहे।
तबले के एक युग का अंत, लेकिन विरासत रहेगी अमर
भले ही उस्ताद अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनके तबले की थाप हमेशा हमारे दिलों में गूँजती रहेगी। उनका जीवन संगीत के प्रति समर्पण, भारतीय संस्कृति के प्रति सम्मान, और कला के प्रति निष्ठा का प्रतीक था। उनकी आवाज़ में “हुज़ूर, वाह ताज बोलिए!” और उनके तबले की ध्वनि ने उन्हें अमर बना दिया। ज़ाकिर हुसैन एक युग थे, एक दर्शन थे, और उनका योगदान हमेशा प्रेरणास्रोत रहेगा।
संगीत प्रेमियों और भारतीय संस्कृति को गौरवान्वित करने वाले इस महान कलाकार को शत-शत नमन।