
- उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में सरकारी कार्यालय को ‘बीयर बार’ बनाने का सनसनीखेज मामला गंभीर: कार्रवाई रोकने में भाषा विभाग के अनुभाग अधिकारी की भूमिका उजागर
- सरकारी कार्यालय में शराब सेवन का वीडियो वायरल- घटना ने उजागर किया अनुशासनहीनता का बड़ा मामला
रिपोर्ट: शिवसागर सिंह चौहान
लखनऊ: उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान में उस समय हड़कंप मच गया जब दो कर्मचारी- सहायक प्रधान सुरेन्द्र कुमार और वरिष्ठ सहायक श्यामकृष्ण सक्सेना- अपने ही सरकारी कार्यालय की कुर्सियों पर बैठकर और टेबल में रखकर खुलेआम बीयर पीते हुए वीडियो और फोटो में नजर आए। सरकारी दफ्तर जैसी पवित्र जगह को ‘बीयर बार’ की तरह इस्तेमाल करना केवल आचार संहिता का उल्लंघन नहीं, बल्कि सरकारी सेवा की गरिमा को ध्वस्त करने वाला गंभीर अपराध है। यह घटना बताती है कि संस्थान में लंबे समय से अनुशासन और जवाबदेही को नजरअंदाज किया जाता रहा है।
मामला पहुंचा सीएम कार्यालय तक- प्रमुख सचिव ने माना “गंभीर कदाचार”, तत्काल कार्रवाई के आदेश, अनुभाग अधिकारी स्तर में रुकी कार्रवाई
मामले की शिकायत जैसे ही मुख्यमंत्री कार्यालय पहुँची, इसे सामान्य अनुशासनहीनता नहीं माना गया। प्रमुख सचिव मुख्यमंत्री संजय प्रसाद ने इसे गंभीर कदाचार की श्रेणी में रखते हुए त्वरित आदेश दिए कि दोषियों के विरुद्ध कठोर विभागीय कार्रवाई की जाए। उन्होंने जांच रिपोर्ट भी प्राथमिकता के आधार पर मांगी। शासन के इस कदम से स्पष्ट था कि सरकार ऐसे मामलों पर किसी भी प्रकार की नरमी बरतने के मूड में नहीं थी।
लेकिन कार्रवाई ठप- अभियोग फाइल रोककर बैठे रहे भाषा अनुभाग 4 के अनुभाग अधिकारी, बड़ी अनियमितता का खुलासा
सबसे चौंकाने वाला मोड़ तब आया जब शासन के स्पष्ट निर्देशों के बावजूद भाषा अनुभाग-4 के अनुभाग अधिकारी जितेंद्र नाथ ने कार्रवाई की फाइल आगे बढ़ाने से रोक दी। वरिष्ठ अधिकारियों के आदेशों को नजरअंदाज करते हुए उन्होंने न केवल पूरे प्रक्रिया को ठप कर दिया बल्कि ऐसा व्यवहार किया जैसे कोई गंभीर घटना हुई ही नहीं। यह लापरवाही नहीं बल्कि सिस्टम के भीतर अपराधियों को बचाने की कोशिश जैसा गंभीर कृत्य प्रतीत होता है। सरकारी आदेशों की अनदेखी करना खुद में दंडनीय अपराध है और यह विभागीय कार्यशैली पर बड़ा प्रश्नचिह्न खड़ा करता है। लेकिन नाम ना लिखने की शर्त पर इस कार्यालय के जिम्मेदार ने बताया की क्योंकि उसे लापरवाही करने वाले व्यक्ति का प्रमोशन होने वाला है और वह स्वयं भाषा अनुभव कर के अनुभाग अधिकारी जितेंद्र नाथ जी के संपर्क में है इसीलिए प्रमोशन के पहले तो किसी भी प्रकार की कार्रवाई भूल ही जाइए भले ही वह आदेश किसी भी बड़े जिम्मेदार का क्यों ना हो।
विधायक डॉ. राजेश्वर सिंह द्वारा हस्तक्षेप के बाद भी कार्रवाई नहीं- मामला और भी गहरा हुआ
मामले की गंभीरता को देखते हुए सरोजनी नगर के विधायक डॉ. राजेश्वर सिंह ने भी प्रमुख सचिव, मुख्यमंत्री को पत्र भेजकर दोषियों के खिलाफ तत्काल कार्रवाई की मांग की। जब एक जनप्रतिनिधि खुद इस घटना को संवेदनशील मानकर हस्तक्षेप करता है, तब विभाग का सक्रिय होना अपेक्षित था।
गौरतलब है कि पत्र प्राप्ति के बाद बीती 14 नवंबर को प्रमुख सचिव मुख्यमंत्री संजय प्रसाद द्वारा इसी मामले के संबंध में सरोजिनी नगर विधायक डॉ.राजेश्वर सिंह के पत्र का जिक्र करते हुए प्रमुख सचिव, भाषा विभाग/निदेशक, हिन्दी संस्थान को कार्यालय में कतिपयकर्मियों द्वारा मद्यपान/अमर्यादित कृत्य करने के संबंध में यह निर्देश जारी किया गया है कि प्रकरण की उच्चस्तरीय जांच कराकर दोषी के विरुद्ध कार्रवाई कर अवगत कराने की अपेक्षा की गई थी परंतु पत्र जारी होने (14 नवंबर को पत्र जारी हुआ) के चार दिन बाद भी कोई कार्रवाई अभी तक नहीं हुई है जो कि कहीं ना कहीं बडी लापरवाही है। अब इतने संवेदनशील मामले में त्वरित कार्रवाई न होना कहीं न कहीं यह दर्शाता है कि या तो विभाग मुद्दे को गंभीरता से नहीं लेना चाहता, या किसी स्तर पर दबाव के चलते मामला जानबूझकर रोका गया है, जिसका जिक्र ऊपर किया जा चुका है।
यह केवल शराब पीने की घटना नहीं- बल्कि अब दोषियों को बचाने का सुनियोजित प्रयास
कार्यालय में बैठकर शराब पीना जितना गंभीर अपराध है, उससे भी अधिक गंभीर है शासन द्वारा दिए गए आदेशों को ठंडे बस्ते में डालना। फाइल रोकना, जांच को कमजोर करना, और अपराध की गंभीरता कम करके दिखाना- ये सभी संकेत दर्शाते हैं कि कहीं न कहीं कुछ लोग पूरी प्रक्रिया को प्रभावित करने की कोशिश कर रहे हैं। ऐसे में केवल शराब सेवन करने वाले कर्मचारियों के खिलाफ ही नहीं, बल्कि कार्रवाई रोकने वाले जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ भी सख्त दंडात्मक कार्रवाई जरूरी है।
सबसे बड़ा सवाल- कार्रवाई आखिर किसके संरक्षण में अटकी?
इस मामले ने कई और भी चिंताजनक सवाल खड़े कर दिए हैं-
- क्या अनुभाग अधिकारी किसी उच्च अधिकारी के संरक्षण में थे?
- क्या जानबूझकर कार्रवाई को रोका गया?
- क्या यह भ्रष्टाचार का मामला है?
- किसके प्रभाव में आदेशों की अवहेलना हुई?
- क्यों शिकायत और शासन आदेशों के बाद भी विभाग निष्क्रिय बना रहा?
इन सवालों का उत्तर निकलना शासन व्यवस्था की पारदर्शिता और प्रतिष्ठा दोनों के लिए आवश्यक है।


































