
लखनऊ, 12 सितंबर 2024: उत्तरप्रदेश के साथ-साथ देश की राजनीति में भी वर्तमान समय की राजनीति में जातिगत मुद्दे लगातार हावी होते जा रहे हैं। आगामी विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र, राज्य में जातिगत समीकरणों का महत्व और भी बढ़ गया है। राजनीतिक दल एक बार फिर से अपने पारंपरिक जातिगत वोट बैंक को साधने की कोशिश कर रहे हैं, जिससे राजनीति का रंग पूरी तरह से जातिगत हो गया है।
विशेषज्ञों का मानना है कि जातिगत राजनीति न सिर्फ़ उत्तर प्रदेश के चुनावी समीकरणों को प्रभावित कर रही है, बल्कि यह सामाजिक ताने-बाने पर भी गहरा असर डाल रही है। भाजपा, समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा), और कांग्रेस सहित सभी प्रमुख दल जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए अपनी रणनीतियों को तैयार कर रहे हैं।
जातिगत राजनीति की बढ़ती पकड़
उत्तर प्रदेश में जातिगत राजनीति कोई नई बात नहीं है, लेकिन हाल के वर्षों में यह पहले से कहीं अधिक प्रभावशाली हो गई है। पिछले कुछ चुनावों में देखा गया है कि जातिगत ध्रुवीकरण ने नतीजों को सीधा प्रभावित किया है। राजनीतिक दल अब जातिगत नेताओं को आगे बढ़ाने, टिकट वितरण में जाति का ध्यान रखने और जातिगत रैलियों का आयोजन करने में जुटे हुए हैं।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने जहां गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलित वोट बैंक को साधने की कोशिश की है, वहीं समाजवादी पार्टी अपने पारंपरिक यादव और मुस्लिम वोट बैंक को फिर से जुटाने में लगी है। उधर, बसपा की नजर दलित वोटों पर टिकी है, जबकि कांग्रेस सभी जातियों को साधने की कोशिश कर रही है।
जातिगत समीकरणों के खेल में प्रमुख दल
- भारतीय जनता पार्टी (भाजपा): भाजपा ने 2017 और 2019 के चुनावों में बड़ी सफलता हासिल की थी, जिसका मुख्य कारण गैर-यादव ओबीसी और गैर-जाटव दलितों को साधना था। पार्टी ने इन समूहों को अपने साथ जोड़ने के लिए कई रणनीतियों का इस्तेमाल किया है, जैसे कि प्रमुख जातिगत नेताओं को पार्टी में शामिल करना और उनकी जाति के मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करना। भाजपा ने योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री के रूप में प्रस्तुत करके ठाकुर और सवर्ण जातियों को भी साथ जोड़ा है।
- समाजवादी पार्टी (सपा): सपा ने हमेशा अपने यादव-मुस्लिम समीकरण पर भरोसा किया है। अखिलेश यादव के नेतृत्व में पार्टी ने इस बार अपने कोर वोट बैंक के साथ-साथ अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) और दलित वोटरों को भी साधने की कोशिश की है। सपा के लिए चुनौती यह है कि वह अपने पारंपरिक वोट बैंक को भाजपा की ओर जाने से कैसे रोके।
- बहुजन समाज पार्टी (बसपा): मायावती की बसपा दलित वोटों पर अपना फोकस बनाए हुए है। हालांकि, हाल के चुनावों में पार्टी के प्रदर्शन में गिरावट आई है, लेकिन बसपा अब भी दलित वोट बैंक को साधने की कोशिश कर रही है। मायावती का कहना है कि बसपा ही असली दलितों की पार्टी है और वह इन वोटरों को अपने साथ बनाए रखने के लिए हर संभव प्रयास कर रही हैं।
- कांग्रेस: कांग्रेस के लिए उत्तर प्रदेश में जातिगत समीकरण साधना चुनौतीपूर्ण रहा है। पार्टी ने प्रियंका गांधी के नेतृत्व में महिलाओं और ब्राह्मणों के बीच अपनी पकड़ मजबूत करने की कोशिश की है। कांग्रेस ने खुद को ‘सबकी पार्टी’ के रूप में पेश करने की रणनीति अपनाई है, जिसमें हर जाति और वर्ग को प्रतिनिधित्व देने की बात कही गई है।
जातिगत राजनीति के सामाजिक प्रभाव
जातिगत राजनीति का प्रभाव सिर्फ़ चुनावी नतीजों तक सीमित नहीं है। यह समाज में गहरे ध्रुवीकरण को बढ़ावा दे रही है। जातिगत रैलियों और जनसभाओं में अक्सर भड़काऊ भाषण दिए जाते हैं, जो समाज में विभाजन को और बढ़ावा देते हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि जातिगत राजनीति के बढ़ते प्रभाव से समाज में तनाव और असुरक्षा की भावना बढ़ रही है।
गांवों और कस्बों में जातिगत संघर्ष और हिंसा की घटनाओं में भी वृद्धि हुई है। जातिगत आरक्षण और प्रमोशन में आरक्षण जैसे मुद्दों पर राजनीतिक दलों के बयानों ने भी तनाव को बढ़ाया है। जातिगत आधार पर नौकरियों और शिक्षा में आरक्षण की मांगें लगातार बढ़ रही हैं, जिससे समाज में असमानता और अन्याय की भावना को बल मिल रहा है।
जातिगत राजनीति की दिशा और भविष्य
वर्तमान समय में जातिगत राजनीति का प्रभाव कम होता नहीं दिख रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि जब तक राजनीतिक दल वोट बैंक की राजनीति से ऊपर उठकर समाज के समग्र विकास पर ध्यान नहीं देंगे, तब तक जातिगत मुद्दे हावी रहेंगे। जातिगत राजनीति को समाप्त करने के लिए जरूरी है कि दल विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य, और रोजगार जैसे असली मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करें। इसके अलावा, राजनीतिक दलों को जातिगत समीकरणों से हटकर सभी वर्गों के विकास की नीतियां बनानी होंगी। जातिगत राजनीति को कम करने के लिए शिक्षा और सामाजिक जागरूकता बढ़ाना भी जरूरी है। समाज को यह समझने की जरूरत है कि जातिगत राजनीति के जरिए केवल राजनीतिक दलों के स्वार्थ साधे जाते हैं, न कि समाज का भला होता है।
उत्तर प्रदेश की राजनीति में जातिगत मुद्दों का बढ़ता प्रभाव चिंताजनक है। यह न सिर्फ चुनावी नतीजों को प्रभावित कर रहा है, बल्कि समाज में भी विभाजन और तनाव को बढ़ावा दे रहा है। राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे जातिगत राजनीति से ऊपर उठकर समाज के समग्र विकास और समरसता पर ध्यान दें। जब तक जातिगत राजनीति हावी रहेगी, तब तक उत्तर प्रदेश की राजनीति विकास की ओर अग्रसर नहीं हो सकेगी।
जातिगत राजनीति के इस दौर में समाज को जागरूक होने की जरूरत है कि असली मुद्दे विकास, शिक्षा और स्वास्थ्य के हैं, न कि जातिगत पहचान के। राजनीतिक दलों को भी अपनी रणनीतियों में बदलाव लाना होगा और समाज के हर वर्ग के उत्थान के लिए काम करना होगा। तभी उत्तर प्रदेश सही मायनों में प्रगति कर पाएगा और जातिगत राजनीति से ऊपर उठ सकेगा।