
- प्रेस क्लब लखनऊ में हुआ भव्य ‘अवधी समागम’ कार्यक्रम।
- चार महत्त्वपूर्ण अवधी पुस्तकों का हुआ लोकार्पण।
- पद्मश्री डॉ. विद्याबिंदु सिंह समेत कई विद्वानों ने रखे विचार।
- ‘संत न मोल बिकाय’ और ‘कजरी’ जैसी रचनाओं को सराहा गया।
- 24 अवधी रचनाकारों को स्मृति चिन्ह और पुस्तकों के सेट सहित किया गया सम्मानित।

लखनऊ: अवधी भाषा, साहित्य और लोकसंस्कृति के समर्पित रचनाकारों को समर्पित एक भव्य समारोह ‘अवधी समागम’ का आयोजन सैप प्रकाशन एवं साहित्यकार समिति के संयुक्त तत्वावधान में रविवार को प्रेस क्लब लखनऊ में किया गया। इस अवसर पर चार महत्त्वपूर्ण अवधी पुस्तकों का लोकार्पण हुआ और साथ ही दो दर्जन से अधिक अवधी साहित्यकारों को सम्मानित किया गया।
दीप प्रज्वलन से आरंभ हुआ समारोह
कार्यक्रम का शुभारंभ मां सरस्वती के चित्र पर माल्यार्पण व दीप प्रज्वलन के साथ हुआ। उद्घाटन मुख्य अतिथि पद्मश्री डॉ. विद्याबिंदु सिंह, प्रो. डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित, डॉ. उमाशंकर शुक्ल शितिकंठ, डॉ. ज्ञानवती दीक्षित, डॉ. राम बहादुर मिश्र और डॉ. रश्मिशील द्वारा किया गया।
चार पुस्तकों का हुआ लोकार्पण
अवधी समागम में चार नई पुस्तकों का विमोचन किया गया, जिनमें प्रमुख रूप से शामिल हैं:
- विनय दास का उपन्यास ‘संत न मोल बिकाय’,
- दीपक सिंह का कहानी संग्रह ‘कजरी’,
- डॉ. ज्ञानवती दीक्षित की पुस्तक ‘दीदी कै पाती’,
- ओपी वर्मा ओम की काव्यकृति ‘चेतना के स्वर’।
पुस्तकों पर विद्वानों की गहन टिप्पणी
मुख्य अतिथि पद्मश्री डॉ. विद्याबिंदु सिंह ने कहा कि ‘संत न मोल बिकाय’, ‘कजरी’, ‘दीदी कै पाती’ जैसी रचनाएं अवधी गद्य कोष में ऐतिहासिक वृद्धि करेंगी। इन रचनाओं में विषयगत नवाचार और भाषा की मिठास है। उन्होंने कहा कि ‘संत न मोल बिकाय’ में सतनामी संतों का जीवंत चित्रण हुआ है, जो कथावाचक शैली में अवधी भाषा की प्रामाणिकता को प्रस्तुत करता है।
‘कजरी’ को उन्होंने देशज स्त्री-विमर्श का गंभीर आख्यान बताया, जो बदलते ग्रामीण समाज की तस्वीर पेश करता है। ‘दीदी कै पाती’ में रिक्त पत्र विधा और संस्मरण को अवधी में सशक्त स्वर मिला है, जबकि ‘चेतना के स्वर’ पाठकों को भीतर तक आंदोलित करती है।
लखनऊ विश्वविद्यालय के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. सूर्य प्रसाद दीक्षित ने ‘संत न मोल बिकाय’ को इस्लामीकरण और धर्मांतरण के प्रतिरोध का दस्तावेज बताया। उन्होंने इसे एक ओर औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता का प्रमाण तो दूसरी ओर सतनामी संत जगजीवन दास के सामाजिक योगदान की गौरवगाथा कहा। ‘कजरी’ की नायिका के संघर्ष को ग्रामीण स्त्रियों के सोच में आए बदलाव का प्रतीक बताया।
डॉ. ज्ञानवती दीक्षित की ‘दीदी कै पाती’ को उन्होंने संस्मरण और पत्र लेखन की अवधी में पुनर्स्थापना बताया, वहीं ओपी वर्मा ओम की ‘चेतना के स्वर’ को चेतन भावों की गहन अभिव्यक्ति करार दिया।
डॉ. उमाशंकर शुक्ल शितिकंठ ने कहा कि ‘संत न मोल बिकाय’ लोक संस्कृति की गहन पड़ताल करती है और अवधी भाषा के मानकीकरण की दिशा में सशक्त प्रयास है। वहीं, ‘कजरी’ ग्रामीण जीवन की यथार्थवादी झांकी है।
अवधी रचनाकारों को किया गया सम्मानित
कार्यक्रम के अंत में अवधी साहित्य में उत्कृष्ट योगदान के लिए 24 रचनाकारों को स्मृति चिन्ह, अंगवस्त्र और पुस्तकों का सेट भेंट कर सम्मानित किया गया।
सम्मानित रचनाकारों में शामिल रहे — डॉ. ज्ञानवती दीक्षित, डॉ. उमाशंकर शुक्ल शितिकंठ, डॉ. रश्मिशील, अनीस देहाती, सूर्य प्रसाद शर्मा, आद्या प्रसाद सिंह प्रदीप, रमाकांत तिवारी रामिल, नागेन्द्र बहादुर सिंह चौहान, डॉ. अनामिका श्रीवास्तव, सुधा द्विवेदी, विनोद मिश्र, भूपेन्द्र दीक्षित, अरुण तिवारी, प्रदीप तिवारी धवल, अजय साहू, डॉ. अर्जुन पाण्डेय, डॉ. अशोक अज्ञानी, डॉ. प्रदीप कुमार शुक्ल, डॉ. शेषमणि शुक्ला एवं नूतन वशिष्ठ सहित अन्य रचनाकार।
अन्य वक्ताओं ने भी रखा विचार
समारोह को डॉ. राम बहादुर मिश्र, प्रदीप सारंग, डॉ. श्याम सुंदर दीक्षित, अजय प्रधान, सूर्य प्रसाद शर्मा निशिहर समेत कई वक्ताओं ने संबोधित किया। सभी ने अवधी भाषा और साहित्य को जनमानस से जोड़ने की आवश्यकता पर बल दिया।
अवधी साहित्य को समर्पित प्रेरणास्रोत आयोजन
अवधी समागम ने यह स्पष्ट किया कि क्षेत्रीय भाषाएं केवल संवाद का माध्यम नहीं बल्कि सांस्कृतिक पहचान की आत्मा होती हैं। इस आयोजन ने अवधी भाषा के उत्थान, विस्तार और नई पीढ़ी से जुड़ाव की दिशा में एक सशक्त कदम उठाया है।